साहित्य स्व्यं जीवन है। साहित्यकार रचना के क्रम मे उस जीवन को जीता है और पठक पढ्ने के क्रम मे।
जीवन पथ का प्राय: प्रत्येक पथिक दैनिक जीवन पथ मे आने वाली विशमताओं, संवेदनाओं, स्नेह, सत्कार, हर्ष, विषाद, जीत-हार, लज्जा, श्रद्धा, राग-द्वेष आदि अनेक भावों के भंवर मे तैरता उपलाता रहता है। यही घनीभूत भाव जीवन की सच्चाईयों से टकराकर जब ठोस रूप धारण करते हैं तो शुद्ध यथार्थवादी हो जाते हैं, जब जीवन के भावुक क्षण से मिलते हैं तो शिल्पी के कोमल शब्दों और कल्प्ना के योग से छायारूप मे अवतरित हो छायावादी बन जाते हैं, जब जीवन की प्रतिकूल हवाओं के थपेरों का जोर असहनीय होने लगता है तब वह उस अद्रिश्य महाशक्ति की ओर देखने लगता है, उस शक्ति के प्रति उस के अन्तर्मन मे अनेक जिग्यासाओं का जन्म होता है, उस शक्ति से तारतम्य स्थापित करना चाह्ता है। आत्मा परमात्मा के मिलन- वियोग की चर्चा करता है और वह अध्यात्म्वादी हो जात है। इसी तरह साहित्य अपने मे सम्पूर्ण जीवन तथा समाज को प्रतिविम्बित करता है। प्रेमचंद जैसे महान युगद्रष्टा साहित्यकार ने साहित्य को समाज का दर्पण माना है और मार्ग दर्शक भी। साहित्य की परिधि मे सम्पूर्ण समाज तो आता ही है, धर्म, दर्शन, स्थापत्य, कला, इतिहास, भुगोल सब समाहित है।
... aapne ek shabd kaha, 'taartamya'... sahitya ka ye purpose behad keemti hai... insaan har waqt jeevan mein ek 'balance' ek poise talashta hai... tamam virodhabhashi awyawon mein ek taartamya baithane ki koshish karta hai.... sahitya yahan uski madadgaar hoti hai.... aap isi prayas ke 'agrani' bane... subhkaamnayein...
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